Saturday, April 11, 2009

आकाश की तलाश में


घर से दूर अपनों से अलग रहना तो शायद किसी को भी अच्छा नही लगता है, लेकिन जाने क्यों मेरा ये मानना था कि चिडिया तब उड़ना सीखती है जब वो अपने पिंजरे से बाहर निकलती है ऐसे ही हमे भी तभी दुनियादारी समझ आती है जब अपनी जिम्मेदारी हम ख़ुद उठाते हैं यही सोच कर ....हम भी अपने घर से चले आए अपने आकाश कि तलाश में, सारा आकाश तो नही चाहा पर आकाश का कोई एक कोना अपना भी हो ये जरूर सोचा था

घर से दूर रहने से ज्यादा दर्द भरा है मेरे लिए वहां से आना, क्योंकि ये दर्द हर बार झेलना पड़ता है जब भी घर से वापस आता हूँ मेरे अपने जिन्हें मेरे आने कि खुशी है लेकिन....... दुःख ज्यादा है कि सिर्फ़ इतने कम दिन के लिए ही आए हों........
उन्हें कैसे बताऊँ कि कैसे रहता हूँ दूर उन सब से, कितना याद करता हूँ अपनी मम्मी के हाथ के बने खाने को जब खाता हूँ सरदार जी के होटल की अधसिंकी रोटियां , कितना याद करता हूँ तुम्हारी गोद को जब रात को थक के लौटता हूँ ऑफिस से......और पापा आप भी तो याद आते हैं जब देखता हूँ किसी बच्चे को अपने पापा की ऊँगली पकड़े जाते हुए

आकाश का कोना ............. खो रहा हूँ अपने पैरों के नीचे की जमीन, आकाश की तलाश में

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