Friday, April 24, 2009

परोपकार


आज एक नई बात देखी शहर की सरपट भागती जिन्दगी और हैदराबाद की चिलचिलाती...... बदन को झुलसाती हुई गर्मी में जब किसी को किसी के लिए फुर्सत नही होती .... तब एक आदमी को राह चलते लोगों को पानी के पकेट्स बाटते देखा ....लोगों को रोक कर ... उनसे पानी पीने कि विनती करता हुआ ... सच बहुत अच्छा लगा ये देख कर कि अभी भी इंसानियत और दया नाम कि चीजे हैं इस दुनिया में ..... वरना इस स्वार्थी दुनिया में जहाँ लोगों के पास अपने माँ बाप के लिए वक्त नही है ... दूसरों कि कौन सोचता है ....

Saturday, April 18, 2009

खुदा तेरा इन्साफ

ऐ खुदा कैसा है तेरा इन्साफ
छोटी गलती कि इतनी बड़ी सज़ा
और पाप करने वाले को
कर दिया तूने माफ़
जो रखती तेरे कितने व्रत उपवास
छीन ली तुमने उस से जीने कि आस
नही चाहा उसने किसी का बुरा
उसके सपनो को तुमने
क्यों रहने दिया अधूरा
लोगों के विश्वास से ऐसे मत खेल
वरना तू सिर्फ़ पत्थर ही कहलायेगा
फ़िर कोई तेरे दर पे
सर झुकाने भी नही आएगा

Friday, April 17, 2009

Short Story

When Henery Ford invented the first motor car he became hero in the media. Media persons rushed to get his interview published exclusively in their news paper. One reporter asked Ford
" Sir you have got overnight success and became a hero. What would you say about that?"
Ford looked at him, gave a smile and said "Yes my dear friend I got overnight success and became hero, But to get this overnight success I had to spend hundreds of sleepless nights"

Moral of the story " People have very short term memory they cant remember how much efforts you have given to get success but they remember only immediate thing."

यहाँ के लोग

क्यों छोटी सी एक गलती की
इतनी बड़ी सज़ा देते हैं लोग
कितनी आसानी से यहाँ
अपनों को भुला देते हैं लोग,
बाद मुद्दत के मिले और
पहचानने से भी गुरेज़ किया
क्या ऐसे भी अपनों को ठुकरा देते हैं लोग

Tuesday, April 14, 2009

बचपन की यादें


बचपन के दिन भी क्या दिन थे
उड़ते फिरते तितली की तरह ....
इस गीत को सुन के शायद ऐसा कोई नही होगा जिसे अपने बचपन की याद न आती होगी और मन में एक बार फ़िर से छोटा बच्चा बननेकी हसरत न जागती हो तो आज गलती से हमने भी ये गीत सुना और याद गई अपने बचपन की एक घटना
बात तब की है जब हम सात साल के थे, औरों की तरह हमें भी गर्मी की छुट्टियाँ अपनी नानी जी के घर बिताने में बड़ा मज़ा आता था, इसके पीछे भी कुछ कारण थे, पहला कारण कि वहां कुछ भी शैतानी करो मम्मी की डांटका कोई डर नही था .......दूसरा कारण उनके घर में भैंसे थीं जिन्हें चराने ले जाने में बड़ा मजा आता था

ये घटना भी उसी से सम्बंधित है ......उस बार जब गर्मी की छुट्टी में नानी जी के घर गए तो उनके यहाँ एक नई भैंस आ गई थी तो अब सबके पास चराने के लिए अपनी अपनी भैंस थी.......

शाम का वक्त था और हमे भैंस चराने की सूझी..... उनके घर के सामने ही एक बड़ा तालाब था जो बेचारा सूरज की तेज़ गर्मी बर्दाश्त नही कर सका और सूखने के कगार पर आ गया था, इस कारण उस में कीचड की मात्रा अधिक हो गई थी

तो भैंस की जंजीर का छल्ला अपने हाथ में पहन के बड़ी शान से भैस को ले कर हम चल पड़े, पीछे से मामा के लड़के ने भैंस को एक डंडा मार दिया......भैंस ने आव देखा न ताव सीधे तालाब की तरफ़ भागी....और हम भैंस के साथ खींचते जा रहे थे.... भैंस ने तालाब के इस किनारे से एंट्री मारी और दूसरे किनारे से निकली..... इस यात्रा में भैंस ने हमे अच्छी खासी कीचड़ छठा दी, जैसे तैसे भैंस शांत हुई और हमे किसी तरह सब ने निकाला....इस यात्रा के बाद हम कीचड में पूरी तरह लिपट चुके थे और काले काले भूत बन गए थे.....

अब भी जब कभी उनके घर जाते हैं तो सोच कर बड़ी हँसी आती है.... मामी जी तो अब भी पूछ लेती हैं "भइया भैंस चराने नही ले जाओगे".....



सपना


अलसाई आंखों से,
सुबह सुबह जब खिड़की से,
झाँक के बाहर देखा,
एक सपना
जो पलकों से टूटकर,
उस चाँद की झीनी रौशनी
से छूट कर ,
नर्म घास पर चमकती ओस
की एक बूँद जैसा,
मेरे सामने आ गया
और जीने के नए आयाम सिखा गया

Saturday, April 11, 2009

गलती

आज बहुत सालों बाद
दिखा एक चेहरा जाना पहचाना,
जी में आया आवाज दे के बुला लूं,
हाथ पकड़ के अपने पास बिठा लूं,
दिल से एक आवाज आई
खो चुके हो तुम ये अधिकार
नहीं हो तुम अब इसके हक़दार
एक छोटी सी ग़लती
जिसको सुधारने का
नहीं दिया जिन्दगी ने मौका
जिसके अब तक दे रहा हूँ सजा खुद को,
सोचा था जो होता है
शायद अच्छा है ,
पर इसमें क्या अच्छा है
ये अब तक नहीं जाना
जब कहा तुमसे
अब ख़त्म हो गया हमारा साथ
शायद नहीं रह सकता मेरे हाथो में तेरा हाथ
तब कितना रोई थी तुम

ये हसीं वादियाँ (कॉलेज का पहला दिन)

जून २९ २००७, भोर के ४ बजे उनींदी अलसाई आँखे खुलीं एक छोटे से स्टेशन पर जिसका नाम वारंगल था.......हाँ वही वारंगल जो NIT के लिए प्रसिद्ध है.....अब अगले दो साल के लिए वारंगल ही मेरा बसेरा बनने वाला था यहाँ मुझे ITM Business School में MBA में प्रवेश मिला था स्टेशन से बाहर निकलते ही मेरी नजर पड़ी मेरा स्वागत करती ऊँची ऊँची चट्टानों पर.....वाह क्या द्रश्य था .....स्टेशन से कॉलेज का सफर भी सुहाना ही कह सकते हैं ...ठीक थक शहर पर शहर की भाग दौड़ नहीकितनी शान्ति .....अरे तभी तो वारंगल शिक्षा का प्रमुख केन्द्र है आंध्र प्रदेश का ....तो बैग उठाये पहुंचे अपने कॉलेज
कॉलेज देख के लगा किसी गुरुकुल में आ गए हैं ... कितनी हरियाली और सुकून.... वरना अधिकतर MBA कॉलेज तो college कम शौपिंग मॉल ज्यादा लगते हैं वारंगल में २ साल के बहुत से खट्टे मीठे संस्मरण हैं जिन्हें सुनाता रहूँगा.....

गलती

एक बार फ़िर उसका दिल दुखाया,
फ़िर ख़ुद को उस से पराया बताया,
सुजा ली उसने आँखे रोते रोते ,
फ़िर मैं अपनी गलती पर पछताया


आकाश की तलाश में


घर से दूर अपनों से अलग रहना तो शायद किसी को भी अच्छा नही लगता है, लेकिन जाने क्यों मेरा ये मानना था कि चिडिया तब उड़ना सीखती है जब वो अपने पिंजरे से बाहर निकलती है ऐसे ही हमे भी तभी दुनियादारी समझ आती है जब अपनी जिम्मेदारी हम ख़ुद उठाते हैं यही सोच कर ....हम भी अपने घर से चले आए अपने आकाश कि तलाश में, सारा आकाश तो नही चाहा पर आकाश का कोई एक कोना अपना भी हो ये जरूर सोचा था

घर से दूर रहने से ज्यादा दर्द भरा है मेरे लिए वहां से आना, क्योंकि ये दर्द हर बार झेलना पड़ता है जब भी घर से वापस आता हूँ मेरे अपने जिन्हें मेरे आने कि खुशी है लेकिन....... दुःख ज्यादा है कि सिर्फ़ इतने कम दिन के लिए ही आए हों........
उन्हें कैसे बताऊँ कि कैसे रहता हूँ दूर उन सब से, कितना याद करता हूँ अपनी मम्मी के हाथ के बने खाने को जब खाता हूँ सरदार जी के होटल की अधसिंकी रोटियां , कितना याद करता हूँ तुम्हारी गोद को जब रात को थक के लौटता हूँ ऑफिस से......और पापा आप भी तो याद आते हैं जब देखता हूँ किसी बच्चे को अपने पापा की ऊँगली पकड़े जाते हुए

आकाश का कोना ............. खो रहा हूँ अपने पैरों के नीचे की जमीन, आकाश की तलाश में

Tuesday, April 7, 2009


रात आधी खींच कर मेरी हथेली

रात आधी खींच कर मेरी हथेली
एक उंगली से लिखा था प्यार तुमने।
फ़ासला था कुछ हमारे बिस्तरों में
और चारों ओर दुनिया सो रही थी।
तारिकाऐं ही गगन की जानती हैं
जो दशा दिल की तुम्हारे हो रही थी।
मैं तुम्हारे पास होकर दूर तुमसे
अधजगा सा और अधसोया हुआ सा।
रात आधी खींच कर मेरी हथेली
एक उंगली से लिखा था प्यार तुमने।
एक बिजली छू गई सहसा जगा मैं
कृष्णपक्षी चाँद निकला था गगन में।
इस तरह करवट पड़ी थी तुम कि आँसू
बह रहे थे इस नयन से उस नयन में।
मैं लगा दूँ आग इस संसार में
है प्यार जिसमें इस तरह असमर्थ कातर।
जानती हो उस समय क्या कर गुज़रने
के लिए था कर दिया तैयार तुमने!
रात आधी खींच कर मेरी हथेली
एक उंगली से लिखा था प्यार तुमने।
प्रात ही की ओर को है रात चलती
औ उजाले में अंधेरा डूब जाता।
मंच ही पूरा बदलता कौन ऐसी
खूबियों के साथ परदे को उठाता।
एक चेहरा सा लगा तुमने लिया था
और मैंने था उतारा एक चेहरा।
वो निशा का स्वप्न मेरा था कि अपने
पर ग़ज़ब का था किया अधिकार तुमने।
रात आधी खींच कर मेरी हथेली
एक उंगली से लिखा था प्यार तुमने।
और उतने फ़ासले पर आज तक
सौ यत्न करके भी न आये फिर कभी हम।
फिर न आया वक्त वैसा
फिर न मौका उस तरह काफिर न लौटा चाँद निर्मम।
और अपनी वेदना मैं क्या बताऊँ।
क्या नहीं ये पंक्तियाँ खुद बोलती हैं?
बुझ नहीं पाया अभी तक उस समय जो
रख दिया था हाथ पर अंगार तुमने।
रात आधी खींच कर मेरी हथेली
- बच्चन


(बच्चन जी की यह कविता एक प्रेमी की व्यथा वेदना और विवशता को व्यक्त करती है)